मैं चाहता तो यही था कि कुछ नया करूँ मैं मगर ये हो न सका उस से मिल के क्या करूँ मैं ये क़र्ज़ मुझ पे जो इस ज़िंदगी का हो गया है कोई बताए मुझे किस तरह अदा करूँ मैं ये इश्क़ मेरी तबीअ'त को साज़गार नहीं ये लोग कहते हैं अब काम दूसरा करूँ मैं मज़ा तब आए सफ़र में अगर कुछ ऐसा हो वो मुझ को बढ़ के उठाता रहे गिरा करूँ मैं अजब मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी मुझ को सुनूँ दिमाग़ की या दिल की अब सुना करूँ मैं तो क्या ये ख़ौफ़ है अपनी शनाख़्त खो दूँगा तू आइने से भी हर रोज़ क्या मिला करूँ मैं ढलक न जाऊँ मैं इक बूँद बन के आँसू की किसी की आँख में नश्तर सा क्यूँ चुभा करूँ मैं गुज़ार डालूँ मैं अब रात चैन से सो कर न ख़्वाब देखूँ न अब कोई रतजगा करूँ मैं तो मेरे हक़ में यही फ़ैसला हुआ है अभी तू इंतिज़ार अभी और आप का करूँ मैं बस इक ज़रा सा इशारा उधर से हो तो इधर दरून-ए-ज़ात क़यामत कोई बपा करूँ मैं वो मुझ को ओढ़ ले 'यावर' कभी क़बा की तरह वो मुझ को ढाँप दे उस वक़्त जब खिला करूँ मैं