मैं दुश्मन को जो इज़्ज़त दे रहा हूँ उसे दर्स-ए-मोहब्बत दे रहा हूँ वो मुझ पर यार कह कर वार कर दे मैं क़ातिल को इजाज़त दे रहा हूँ वो ग़म सारे ज़माने से जुदा है जिसे दिल की हुकूमत दे रहा हूँ ग़म-ए-जानाँ सदा तू रह सलामत दुआ-ए-इस्तक़ामत दे रहा हूँ ये दिल तेरे सितम पर भी है ख़ंदाँ उसे दाद-ए-शुजाअत दे रहा हूँ मिरा क़िस्सा निहायत मुख़्तसर है कहानी को तवालत दे रहा हूँ सदा-ए-कुन कहाँ मैं ने सुनी थी मगर उस की शहादत दे रहा हूँ