मैं एक अकेला हूँ लेकिन ज़ालिम का ज़माना साथी है वो ज़ुल्म करे मैं ज़ुल्म सहूँ ये रस्म अभी तक बाक़ी है जब ख़ून-ए-जिगर जम जाता है दामन पे अँधेरों के जा कर तब रात के पर्दे जलते हैं तब जा के सहर हो पाती है सावन हो कि पतझड़ हो यारो कुछ फ़र्क़ नहीं है अपने लिए हर रुत जो बदल कर आती है वो ग़म के तहाइफ़ लाती है दुनिया में हमें अक्सर या-रब अपनी ये हयात-ए-फ़ानी ही दोज़ख़ के भयानक मंज़र भी ला ला के यहाँ दिखलाती है वो खिलते रहें कलियों की तरह वो हँसते रहें फूलों की तरह ऐ 'सोज़' हमें जीने के लिए ये ज़ख़्म-ए-जिगर ही काफ़ी है