मैं फ़र्द-ए-जुर्म तेरी तय्यार कर रहा हूँ ऐ आसमान सुन ले हुश्यार कर रहा हूँ इक हद बना रहा हूँ शहर-ए-हवस में अपनी दर खोलने की ख़ातिर दीवार कर रहा हूँ मालूम है न होगी पूरी ये आरज़ू भी फिर दिल को बे-सबब क्यूँ बीमार कर रहा हूँ फूलों-भरी ये शाख़ें बाँहों सी लग रही हैं अब क्या बताऊँ किस का दीदार कर रहा हूँ ये रास्ते कि जिन पर चलता रहा हूँ बरसों आइंदगाँ की ख़ातिर हमवार कर रहा हूँ आसानियों में जीना मुश्किल सा हो गया है मैं ज़िंदगी को थोड़ा दुश्वार कर रहा हूँ सामे बना लिया है रातों को मैं ने अपना ग़ज़लें सुना सुना के सरशार कर रहा हूँ