मैं गिला तुम से करूँ ऐ यार किस किस बात का ये कहानी दिन की हो जाए न क़िस्सा रात का तर्क की मुझ से मुलाक़ात आप ने अच्छा किया ग़म मिटा हर-वक़्त का झगड़ा गया दिन-रात का बे-तमीज़ों से तबीअ'त आश्ना होती नहीं चाहने वाला हूँ मैं महबूब-ए-ख़ुश और रात का मैं तो कुछ कहता हूँ तुम से तुम समझते हो कुछ और जबकि बातों में कलाम आया मज़ा क्या बात का तेरे आने की दुआ माँगा कभी जागा किए रात-भर आलम रहा ऐ बुत ख़ुदाई रात का वाह क्या नाम-ए-ख़ुदा सज-धज है क्या अंदाज़ है आदमी देखा नहीं इस क़द का और इस कात का सामने यूँ आए बोतल जैसे आती है घटा जाम यूँ झलके कि मैं देखूँ समाँ बरसात का इश्क़ वो ग़ारत-गर-ए-ईमाँ है ये चाहे अगर वाइ'ज़ों को कलमा पढ़वाए मनात-ओ-लात का ऐसे झूटे हो अगर सच भी कभी हो बोलते ए'तिबार आता नहीं साहब तुम्हारी बात का यार तुम को दिल नहीं देने का बे-बोसा लिए तुम जो अपनी गूँगे हो मैं भी हूँ अपनी घात का अहल-ए-दुनिया ख़ुश हों या ना-ख़ुश हों कुछ पर्वा नहीं आसरा रखता है ये बंदा ख़ुदा की ज़ात का जब तुम्हारी कान की बिजली चमक कर रह गई मेरी आँखों ने समाँ दिखला दिया बरसात का क़ामत-ए-जानाँ है मील-ए-मंज़िल-ए-अव्वल मुझे काकुल-ए-शब-गूँ है जादा वादी-ए-आफ़ात का ताश का मूबाफ़ चोटी में मुक़र्रर चाहिए चाँदनी से और ही होता है जोबन रात का 'बहर' अपनी अपनी क़िस्मत है ब-शक्ल-ए-मेहर-ओ-माह ज़र उसे बख़्शा उसे कासा दिया ख़ैरात का