मैं हर बे-जान हर्फ़-ओ-लफ़्ज़ को गोया बनाता हूँ कि अपने फ़न से पत्थर को भी आईना बनाता हूँ मैं इंसाँ हूँ मिरा रिश्ता 'ब्राहीम' और 'आज़र' से कभी मंदिर कलीसा और कभी काबा बनाता हूँ मिरी फ़ितरत किसी का भी तआवुन ले नहीं सकती इमारत अपने ग़म-ख़ाने की मैं तन्हा बनाता हूँ न जाने क्यूँ अधूरी ही मुझे तस्वीर जचती है मैं काग़ज़ हाथ में लेकर फ़क़त चेहरा बनाता हूँ मिरी ख़्वाहिश का कोई घर ख़ुदा मालूम कब होगा अभी तो ज़ेहन के पर्दे पे बस नक़्शा बनाता हूँ मैं अपने साथ रखता हूँ सदा अख़्लाक़ का पारस इसी पत्थर से मिट्टी छू के मैं सोना बनाता हूँ