मैं हूँ मरीज़-ए-इश्क़ कोई चारागर नहीं मैं चाहता हूँ क्या ये किसी को ख़बर नहीं जिस रास्ते पे चलता हूँ वो मो'तबर नहीं जाता हूँ किस तरफ़ को मुझे ख़ुद ख़बर नहीं कितने हैं जो हैं फ़िक्र में उक़्बा के ग़ोता-ज़न फ़िक्र-ए-मआ'श से तो किसी को मफ़र नहीं हालात मेरे देख के क्यों तुम हो ग़म-ज़दा सुर्ख़ी जो आँख में है वो ख़ून-ए-जिगर नहीं जिस से भी चाही मैं ने मदद ग़ैर हो गया इस दौर में तो क़द्र-ए-मताअ'-ए-हुनर नहीं फ़ुर्क़त में उन की दिल तो मिरा सोख़्ता ही था आँखें भी ख़ुश्क हो गईं अब चश्म तर नहीं मेरे अलावा ग़ैर से हर दम हैं हम-कलाम कैसे यक़ीन कर लूँ कि वो सौदागर नहीं दौलत थी अपने पास तो सब लोग साथ थे तन्हा है 'महशर' आज कोई हम-सफ़र नहीं