मैं इक कशाकश-ए-उम्मीद-ओ-बीम तक पहुँचा कभी तपिश कभी मौज-ए-नसीम तक पहुँचा हर एक गाम पे तहक़ीक़ चाहती थी ख़िरद भटक गया तो रह-ए-मुस्तक़ीम तक पहुँचा मिरी निगाह ने दिल में तिरे उतार दिया वो लफ़्ज़ जो न ज़बान-ए-कलीम तक पहुँचा तुम्हारी याद ने माज़ी का रूप दोहराया ये साज़-ए-नौ भी नवा-ए-क़दीम तक पहुँचा लिए चराग़-ए-शनासाई मैं जिधर भी गया मुग़ाइरत के दयार-ए-अज़ीम तक पहुँचा पयाम बन के मिरी ज़िंदगी की जानिब से नफ़स नफ़स मिरे दिल के मुक़ीम तक पहुँचा ख़ुशी वो लफ़्ज़ कि गुज़रा जो मा'नविय्यत से तो मेरे ग़म की किताब-ए-ज़ख़ीम तक पहुँचा मिरे शुऊ'र में शामिल रहा तलब का जुनूँ मैं शहर-ए-गुल में जो पहुँचा शमीम तक पहुँचा जो बरक़रार सलामत-रवी रही 'नाज़िश' कोई हरीफ़ न तब-ए-सलीम तक पहुँचा