रह-ए-वफ़ा से गुरेज़ करना सुबूत-ए-ख़ुद-आगही नहीं है मक़ाम-ए-दार-ओ-रसन से हट कर तो दूर तक ज़िंदगी नहीं है यही दलील-ए-जवाज़-ए-मस्ती यही है बुनियाद-ए-मय-परस्ती अता-ए-पीर-ए-मुग़ाँ से कमतर मज़ाक़-ए-तिश्ना-लबी नहीं है न अब वो सर-गर्मी-ए-वफ़ा है न शो'ला-सामाँ कोई तमन्ना जुनूँ तड़पता हुआ नहीं है नज़र सुलगती हुई नहीं है अभी रुख़-ए-काएनात पर है स्याही-ए-शब का रक़्स-ए-पैहम ये सुब्ह का आफ़्ताब क्या है जो दाग़-ए-शर्मिंदगी नहीं है सहर के मोनिस हैं लाला-ओ-गुल नुजूम-ओ-महताब शब के साथी ये सब मिरे राज़दार-ए-ग़म हैं यहाँ कोई अजनबी नहीं है नज़र में हैं आज तक फ़रोज़ाँ वो ख़्वाब के मरमरीं जज़ीरे कि जिन की ख़ामोश रिफ़अ'तों पर कोई किरन धूप की नहीं है उम्मीद का दिल से है तअल्लुक़ न जाने फिर भी मआल क्या हो चराग़ तक दस्तरस है लेकिन गिरफ़्त में रौशनी नहीं है अभी उभरते हुए सवेरे पे ज़ुल्मत-ए-शब की हैं निगाहें मैं ऐसे माहौल में हूँ 'नाज़िश' जहाँ हँसी भी हँसी नहीं है