मैं इस दिल से निकल कर बाम-ओ-दर तक़्सीम करती हूँ कि ख़ुद बे-घर हूँ और लोगों में घर तक़्सीम करती हूँ नगर वालों में जब कोताह-दस्ती आम होती है मैं आँधी की तरह उन में समर तक़्सीम करती हूँ हवाओं के लिए कुछ भी बचा कर मैं नहीं रखती ख़िज़ाँ-रुत की तरह पूरा शजर तक़्सीम करती हूँ मिरे पास उस को देने के लिए इतनी मोहब्बत है कि मैं ख़ुद भी नहीं बचती अगर तक़्सीम करती हूँ अजब माँ हूँ कि ख़ुद तो उन से आगे जा नहीं सकती मगर मैं अपने बच्चों में सफ़र तक़्सीम करती हूँ इसी ख़ातिर पुराने लफ़्ज़ मेरे पास आते हैं कि मैं उन में मोहब्बत का असर तक़्सीम करती हूँ मैं पस-अंदाज़ कर सकती नहीं यादों की दौलत को अगर बच जाए तो बार-ए-दिगर तक़्सीम करती हूँ सिवा ला-हासिली के और हासिल कुछ नहीं होता मैं जब भी ख़ुद को उस पर ऐ 'क़मर' तक़्सीम करती हूँ