मैं जब भी कोई मंज़र देखता हूँ ज़रा औरों से हट कर देखता हूँ यही शय मुनफ़रिद करती है मुझ को मैं क़तरे में समुंदर देखता हूँ बहुत हंगामा-ए-आलम को देखा ज़रा ख़ुद में सिमट कर देखता हूँ जहान-ए-बे-करानी का नज़ारा उतर कर अपने अंदर देखता हूँ मुझे जब देखना होता है ख़ुद को तिरे नज़दीक आ कर देखता हूँ न जाने कितने सूरज हैं दरख़्शाँ अंधेरा फिर भी घर घर देखता हूँ हुआ करता था ताज़ा फूल जिन में अब उन हाथों में ख़ंजर देखता हूँ तुम्हें हैरत-ज़दा बुत कर रहे हैं मगर मैं दस्त-ए-आज़र देखता हूँ मैं जब भी देखता हूँ 'नूर' उस को ये लगता है कि पत्थर देखता हूँ