मेरे आँगन का नया रंग नज़र आता है शाम होती है तो इक चाँद उतर आता है क्या हुआ है मुझे क्यों घर पे मिरे कल शब से जो भी आता है वो बा-दीदा-ए-तर आता है जो भी कहना हो वो कह देती हैं लफ़्ज़ों के बग़ैर बात करने का उन आँखों को हुनर आता है उस के साए में कई अह्द गुज़ारे गए हैं रास्ते में जो मिरे बूढ़ा शजर आता है ऐसा मंज़र कहाँ रुकता है किसी के रोके बाँध कर पाओं में अपने जो भँवर आता है ख़त्म जिस पर हो गुज़रते हुए लम्हों का सफ़र इक नया साल उसी लम्हे से उभर आता है एक मुद्दत से बिला-नाग़ा सर-ए-शाम ऐ 'नूर' क़ाफ़िला शहर-ए-नवा का मिरे घर आता है