मैं जिन को ढूँडने निकला था गहरे ग़ारों में पता चला कि वो रहते हैं अब सितारों में परख रहा है मुझे जो वो इस ख़याल का है हमेशा झूट नहीं होता इश्तिहारों में उन्हें यक़ीन था दुनिया की उम्र लम्बी है जो लोग पेड़ लगाते थे रहगुज़ारों में मैं ख़ुद को देखूँ अगर दूसरे की आँखों से मिलेंगी ख़ामियाँ अपने ही शाह-कारों में तुम्हारी ख़ुशबू को मुझ से कहीं ये छीन न ले हवा जो रहती है दीवार की दरारों में ख़ुदा का शुक्र कि मैं उस से थोड़ी दूर रहा सफ़ेद साँप था गेंदे के पीले हारों में नशीली रात का नश्शा कुछ और बढ़ जाता तिरा नज़ारा भी होता अगर नज़ारों में ज़बाँ पे आई तो अपनी मिठास खो बैठी जो बात होती थी पहले कभी इशारों में