मैं जिस को भूल जाने का इरादा कर रहा हूँ उसी को याद पहले से ज़ियादा कर रहा हूँ है ये भी दूसरों को प्यास का एहसास शायद सुहानी रुत है और मैं तर्क-ए-बादा कर रहा हूँ मुबारक हो जो तू मंज़िल-ब-मंज़िल बढ़ रहा है तो मैं भी याद तुझ को जादा जादा कर रहा हूँ नहीं मिन्नत-कश-ए-एहसाँ किसी का रहगुज़र में मैं तन्हा हूँ सफ़र भी पा-पियादा कर रहा हूँ सहा जाता नहीं अब रंज-ए-महरूमी-ए-मंज़िल सफ़र ही तर्क कर दूँ ये इरादा कर रहा हूँ उलझता हूँ मसाफ़त की तवालत से मैं जितना मसाफ़त को मैं उतना ही ज़ियादा कर रहा हूँ मैं इंसाँ हूँ ये मेरे इर्तिक़ा की है अलामत कि मैं इंसानियत को बे-लबादा कर रहा हूँ समाता ही नहीं कोई मिरी नाक़िस नज़र में मैं अपनी ज़ात ही से इस्तिफ़ादा कर रहा हूँ सफ़र भी हो मयस्सर वो भी दिन क़िस्मत दिखाए मैं बरसों से इरादा ही इरादा कर रहा हूँ तिरे क़ौल-ओ-क़सम जिन को कि तू भूला हुआ है तिरी जानिब से मैं उन का इआदा कर रहा हूँ 'वक़ार' अज्दाद की तारीख़ पढ़ लूँ अज़-सर-ए-नौ मुरत्तब ही जब अपना ख़ानवादा कर रहा हूँ