मैं जो अपने हाल से कट गया तो कई ज़मानों में बट गया कभी काएनात भी कम पड़ी कभी जिस्म-ओ-जाँ में सिमट गया यही हाल है कई साल से न क़रार-ए-दिल न सुकून-ए-जाँ कभी साँस ग़म की उलट गई कभी रिश्ता दर्द से कट गया मिरी जीती-जागती फ़स्ल से ये सुलूक बाद-ए-सुमूम का मिरी किश्त-ए-फ़िक्र उजड़ गई मिरा ज़ेहन काँटों से पट गया न दयार-ए-दर्द में चैन है न सुकून दश्त-ए-ख़याल में कभी लम्हा भर को धुआँ छटा तो ग़ुबार राह में अट गया न वो आरज़ू न वो जुस्तुजू न वो रंग-ए-जामा-ए-बे-रफ़ू भला इस वजूद का वज़्न क्या जो मदार-ए-शौक़ से हट गया न वो कैफ़-ए-शब न वो माह-ए-शब न वो कारवान-ए-ग़ज़ाल-ए-शब जहाँ ज़िक्र-ए-हिज्र-ओ-विसाल था वो वरक़ ही कोई उलट गया