मैं जो सहरा में किसी पेड़ का साया होता दिल-ज़दा कोई घड़ी भर को तो ठहरा होता अब तो वो शाख़ भी शायद ही गुलिस्ताँ में मिले काश इस फूल को उस वक़्त ही तोड़ा होता वक़्त फ़ुर्सत नहीं देगा हमें मुड़ने की कभी आगे बढ़ते हुए हम ने जो ये सोचा होता हँसते हँसते जो हमें छोड़ गया है हैराँ अब रुलाने के लिए याद न आया होता वक़्त-ए-रुख़्सत भी निराली ही रही धज तेरी जाते जाते ज़रा मुड़ के भी तो देखा होता किस से पूछें कि वहाँ कैसी गुज़र होती है दोस्त अपना कभी अहवाल ही लिक्खा होता ऐसा लगता है कि बस ख़्वाब से जागा हूँ अभी सोचता हूँ कि जो ये ख़्वाब न टूटा होता ज़िंदगी फिर भी थी दुश्वार बहुत ही दुश्वार हर क़दम साथ अगर एक मसीहा होता एक महफ़िल है कि दिन रात बपा रहती है चंद लम्हों के लिए काश मैं तन्हा होता