मैं कल तन्हा था ख़िल्क़त सो रही थी मुझे ख़ुद से भी वहशत हो रही थी उसे जकड़ा हुआ था ज़िंदगी ने सिरहाने मौत बैठी रो रही थी खुला मुझ पर कि मेरी ख़ुश-नसीबी मिरे रस्ते में काँटे बो रही थी मुझे भी ना-रसाई का समर दे मुझे तेरी तमन्ना जो रही थी मिरा क़ातिल मिरे अंदर छुपा था मगर बद-नाम ख़िल्क़त हो रही थी बग़ावत कर के ख़ुद अपने लहू से ग़ुलामी दाग़ अपने धो रही थी लबों पर था सुकूत-ए-मर्ग लेकिन मिरे दिल में क़यामत सो रही थी ब-जुज़ मौज-ए-फ़ना दुनिया में 'मोहसिन' हमारी जुस्तुजू किस को रही थी