मैं ख़ाल-ओ-ख़द का सरापा तसव्वुरात में था दमकती ज़ात का सूरज अँधेरी रात में था वो वक़्त अब भी निगाहों में जगमगाता है ये काएनात थी मुझ में मैं काएनात में था मैं शहर शहर की हैरानियों से गुज़रा हूँ मिरा वजूद भी शायद अजाइबात में था अना के दश्त में सदियों की धूल ओढ़े हुए न जाने कब से वो उलझा तअस्सुबात में था तमाम शोर-शराबा नफ़स नफ़स में लिए वो डूबता हुआ एहसास शब-ए-बरात में था ये सुब्ह-ओ-शाम मुलाक़ात है अजीरन सी कभी-कभार का मिलना तबर्रुकात में था 'हयात' ढूँड रहा हूँ वो लखनऊ कि जहाँ शराफ़तों का असासा तकल्लुफ़ात में था