मैं किसी की रात का तन्हा चराग़ इतना सुनना था कि फिर महका चराग़ ताक़-ए-जाँ की गुल हुई अफ़्सुर्दगी आस ने उम्मीद का रक्खा चराग़ अंदरून-ए-ज़ात तक खुलता हुआ जिस्म के जंगल में इक उगता चराग़ दो सितारे जड़ के यकजा हो गए आख़िर-ए-शब डूब कर उभरा चराग़ ख़्वाब में दोनों ने देखी रौशनी नींद में मिल बाँट कर ढूँडा चराग़ तीरगी के दाएरे में रख गया एक साया आ के फिर जलता चराग़ साहिलों की नज़र कर आई हवा मिन्नतों का एक मन-चाहा चराग़ लो कोई तज्सीम कर पाया कहाँ मोम बन कर रात-भर पिघला चराग़ नीम-वा आँखों से मुझ को देख कर गुल हुआ जाता है इक बूढ़ा चराग़