मैं कितना तन्हा हूँ कोई मेरी ज़बान समझे न बात समझे न मेरे दिन को वो दिन ही माने न रात को मेरी रात समझे मैं जिस को अपना समझ के लम्स-ए-हयात देता रहा ख़ुशी से वो मुझ को मिस्ल-ए-हबाब माने करामत-ए-बे-सबात समझे ये सर-ज़मीं ख़ुशनुमा है इस में बहुत से कोह-ओ-दमन हैं लेकिन कोई हज़ारा कहे उसे क्यों कोई उसे क्यों सवात समझे मैं कैसे मानूँ जो दर्द की मय कशीद कर के पिलाए हर पल वो मुझ को हर साँस ज़ीस्त माने और अपनी कुल काएनात समझे किसी को क्या अब बताएँ 'आसिम' कि ज़िंदगी मर्ग-ए-मुस्तक़िल है वहाँ ये भी सिसकियाँ सुनी हम ने जिस को शहर-ए-हयात समझे