मैं लौट आऊँ कहीं तू ये सोचता ही न हो कि रात देर गए तेरा दर खुला ही न हो नहीं कि ज़ीस्त से कुछ वास्ता पड़ा ही न हो मैं कैसे मानूँ तिरा दिल कभी दुखा ही न हो तलाश कर उसे दीवार-ओ-दर के चेहरों में अजब नहीं तिरी महफ़िल से वो उठा ही न हो इक ए'तिमाद-ए-वफ़ा है कि जी रहा हूँ मैं कि मेरे हाल का शायद उसे पता ही न हो ये रास्ता तो उसी दर पे जा के रुकता था कि वो ख़फ़ा है तो ये रास्ता मुड़ा ही न हो मैं यूँही उस से ख़फ़ा हूँ मगर मुझे डर है मनाने वाला हक़ीक़त में ख़ुद ख़फ़ा ही न हो मुझे तो तुझ पे ख़ुद अपना गुमाँ गुज़रता है तिरा थका हुआ लहजा मिरी दुआ ही न हो गुनाह और हसीं, अहरमन के बस में नहीं सितम-ज़रीफ़ कोई बंदा-ए-ख़ुदा ही न हो मैं सोचता हूँ कि आप-अपनी दुश्मनी क्या है मिरा वजूद मिरी ज़ात से जुदा ही न हो बड़े-बड़ों के नशेब-ओ-फ़राज़ देखे हैं कोई मिले तो सही जिस का सर झुका ही न हो न जाने कितने हैं सय्यारगान-ए-ना-दीदा तू इंतिहा जिसे कहता है इब्तिदा ही न हो वो लाख ग़म सही ऐसा नहीं ये दुनिया है कि 'शाज़' उस से बिछड़ कर कभी हँसा ही न हो