ज़बाँ कटी सो कटी बहस मुख़्तसर तो हुई जो बात मैं ने कही थी वो मो'तबर तो हुई ये दिन तो रात में ढलता नज़र नहीं आता भली थी शब कि गुज़र तो गई सहर तो हुई गिरी फ़सील जो ज़िंदाँ की सर बहुत फूटे मचा तो शोर मगर ख़ल्क़ को ख़बर तो हुई मुक़ाबले में उधर तेग़ थी इधर गर्दन मैं सुरख़-रू हूँ कि तफ़रीक़-ए-ख़ैर-ओ-शर तो हुई हरीफ़ हो गए क़ुर्बां मताअ'-ए-दुनिया पर उन्हें भी जाँ से कोई शय अज़ीज़-तर तो हुई