मैं ने कोशिश की बहुत लेकिन कहाँ यकजा हुआ सफ़हा-ए-हस्ती का शीराज़ा रहा बिखरा हुआ ज़ेहन की खिड़की खुली दिल का दरीचा वा हुआ तब जहाँ के दर्द से रिश्ता मिरा गहरा हुआ क्या पत्ता कब कौन उस की ज़द पे आ जाए कहाँ वक़्त की रफ़्तार से हर शख़्स है सहमा हुआ किस की याद आई मोअ'त्तर हो रहे हैं ज़ेहन-ओ-दिल किस की ख़ुशबू से है सारा पैरहन महका हुआ पेड़ के नीचे शिकारी जाल फैलाए हुए और परिंदा शाख़ पर बैठा डरा सहमा हुआ दो-क़दम भी अब तुम्हारे साथ चलना था मुहाल राह तुम ने ख़ुद अलग कर ली चलो अच्छा हुआ ज़िंदगी हर ज़ाविए से देखता हूँ मैं तुझे है मिरी फ़िक्र-ओ-नज़र का दायरा फैला हुआ छप गई पानी में अपनी छब दिखा कर जल-परी आज फिर 'नायाब' मेरे साथ इक धोका हुआ