मैं ने लाख देखे सितम मगर ये तिरा सितम तो अजीब है कभी पास हो के भी दूर है कभी दूर हो के क़रीब है मैं बिगड़ गया तिरी इक नज़र से वगर्ना मुझ को तो देख कर ये गली की औरतें बोलतीं इसे देखो कैसा नजीब है तू हो सामने तो भी बे-ख़ुदी न हो सामने तो भी दिल जले मिरे किस गुनह की सज़ा ये दी कि तपीदगी ही नसीब है तिरे सेहर का मैं शिकार हो के तिरे क़रीब जो आ गया तो पता चला ये मुझे कि तुझ से जो दूर है वो लबीब है ये दुआ भी है कि न वस्ल हो ये दुआ भी है कि न हिज्र हो मिरे मर्ज़-ए-दिल का सबब है तू मिरे दिल का तू ही तबीब है कभी बे-रुख़ इतना कि ख़ार हो कभी मुल्तफ़ित तो निसार हो तिरी ये अदा भी हबीब है तिरी वो अदा भी हबीब है ये ज़माना अहल-ए-ज़माना सब मुझे भूल जाएँ गिला नहीं तू न भूलना कि 'मआज़' भी तिरे मय-कदे का रक़ीब है