मैं ने रोका भी नहीं और वो ठहरा भी नहीं हादिसा क्या था जिसे दिल ने भुलाया भी नहीं जाने वालों को कहाँ रोक सका है कोई तुम चले हो तो कोई रोकने वाला भी नहीं कौन सा मोड़ है क्यूँ पाँव पकडती है ज़मीं उस की बस्ती भी नहीं कोई पुकारा भी नहीं बे-नियाज़ी से सभी क़र्या-ए-जाँ से गुज़रे देखता कोई नहीं है कि तमाशा भी नहीं वो तो सदियों का सफ़र कर के यहाँ पहुँचा था तू ने मुँह फेर के जिस शख़्स को देखा भी नहीं किस को नैरंगी-ए-अय्याम की सूरत दिखलाएँ रंग उड़ता भी नहीं नक़्श ठहरता भी नहीं या हमीं को न मिला उस की हक़ीक़त का सुराग़ या सरा पर्दा-ए-आलम में कोई था भी नहीं