मैं ने उन से जो कहा ध्यान मिरा कुछ भी नहीं हाए किस नाज़ से हँस हँस के कहा कुछ भी नहीं अर्ज़ की कुछ दिल-ए-आशिक़ की ख़बर है तो कहा हाँ नहीं कुछ नहीं बस कह तो दिया कुछ भी नहीं तू न आया शब-ए-वा'दा तो गया क्या तेरा मर मिटे हम तिरे नज़दीक हुआ कुछ भी नहीं क्या है अंजाम-ए-मोहब्बत कोई पूछे हम से जीते-जी ख़ाक में मिलने के सिवा कुछ भी नहीं किस की मेहर और वफ़ा अब है जफ़ा से भी गुरेज़ क्यूँ न जल कर कहें उल्फ़त में मज़ा कुछ भी नहीं आँखों ही आँखों में दिल ले गया सीने से निकाल हाथ से हम ने दिया उस ने लिया कुछ भी नहीं मिरे अल्लाह ये पत्थर कि बुतों का दिल है रहम रुस्वाई का डर ख़ौफ़-ए-ख़ुदा कुछ भी नहीं कौन सा दर्द है जिस का नहीं दुनिया में इलाज लेकिन इस दर्द-ए-मोहब्बत की दवा कुछ भी नहीं देखा 'कैफ़ी' को तो बे-साख़्ता यूँ बोल उठे अब तो बीमार-ए-मोहब्बत में रहा कुछ भी नहीं