मैं पस्ती-ए-अख़्लाक़-ए-बशर देख रहा हूँ फिर नज़्म-ए-जहाँ ज़ेर-ओ-ज़बर देख रहा हूँ मज़लूम की आहों का गुज़र देख रहा हूँ गो दूर बहुत बाब-ए-असर देख रहा हूँ मक़्सद ये शहीदान-ए-वतन का न था हरगिज़ जो आज शहादत का समर देख रहा हूँ यूँ तो है हर इक जिंस गराँ हिन्द में लेकिन अर्ज़ां है फ़क़त ख़ून-ए-बशर देख रहा हूँ ग़ुंचों के लबों पर कहाँ आसार-ए-तबस्सुम हर गुल का यहाँ चाक-ए-जिगर देख रहा हूँ सच है किसी मजबूर की फ़रियाद को 'मंज़र' देखा नहीं जाता है मगर देख रहा हूँ