मैं पुजारी था मगर मेरा कोई मंदर न था जो भी था पहलू में मेरे वो मिरा दिलबर न था किस क़दर दिलकश लगीं सपने में गलियाँ शहर की खुल गई जब आँख तो फिर वो हसीं मंज़र न था जाने क्या शय दिल के आईने के टुकड़े कर गई देखने में उस के हाथों में कोई पत्थर न था बद-हवासी थी मिरी या तुझ से मिलने की लगन जिस पे दस्तक दे रहा था मैं वो तेरा घर न था बैठे बैठे यूँ लगा जैसे पुकारे तू मुझे खोल कर देखा जो दरवाज़ा कोई बाहर न था वो तो था शायद कोई 'बेताब' पत्थर का बदन छू के देखा था जिसे मैं ने तिरा पैकर न था