मैं शर्मसार हूँ अपने ज़मीर के आगे कि हाथ ख़ाली था मेरा फ़क़ीर के आगे मिरा यक़ीन था हद्द-ए-ग़ुमान के अंदर कभी भी सोचा नहीं है लकीर के आगे कोई तो जज़्बा था महजूर के ख़यालों में पिघल रही थीं सलासिल असीर के आगे चराग़-ए-सहरी था लेकिन अजीब रौशन था चमक रहा था वो माह-ए-मुनीर के आगे मैं कैसे उस के लिखे पर यक़ीन कर लेता क़लम भी गिरवी था जिस का अमीर के आगे हर एक शख़्स था कमज़ोर-ओ-नातवाँ 'साहिल' बदन-दरीदा था हर इक शरीर के आगे