इक ख़्वाब लड़कपन में जो देखा था वो तुम थे पैकर जो तसव्वुर में उभरता था वो तुम थे इक ऐसा तअल्लुक़ जो तअल्लुक़ भी नहीं था फिर भी मैं जिसे अपना समझता था वो तुम थे था क़ुर्ब की ख़्वाहिश में भी कुछ हुस्न अजब सा जो गिर्द मिरे रंग था नग़्मा था वो तुम थे यक-दम जो ये तंहाई महकने सी लगी थी झोंका जो अभी ख़ुशबू का गुज़रा था वो तुम थे इस वास्ते मय-ख़्वारी का इल्ज़ाम था मुझ पर मुझ में जो वो इक नश्शा सा रहता था वो तुम थे ग़ीबत का हदफ़ तुम ने जो रक्खा था वो मैं था और मैं ने जिसे टूट के चाहा था वो तुम थे बे-मसरफ़-ओ-बे-कार हूँ अब राख की मानिंद चिंगारी थी जो मुझ में जो शोला था वो तुम थे लगता है वो शहर अब किसी आसेब-ज़दा सा क्या जिस के लिए जश्न सा बरपा था वो तुम थे