मैं सोचता हूँ सबक़ मैं ने वो पढ़ा ही नहीं मिरे जुनूँ की हिकायत में जो लिखा ही नहीं मैं सोचता हूँ ज़ुलेख़ा की कुछ ख़बर आए मिरे सिवा कहीं यूसुफ़ का कुछ पता ही नहीं मैं सोचता हू कि अपने ख़ुदा से कह डालूँ वो सब जो मैं ने कभी आज तक कहा ही नहीं मैं सोचता हूँ कि सब तो थे गोश-बर-आवाज़ वही था एक कि जिस ने कहा सुना ही नहीं मैं सोचता हूँ कभी रात के अँधेरों में चराग़ वो भी जले जो कभी जला ही नहीं मैं सोचता हूँ जो ख़ामोशियों के सहरा में सदा की धुँद में साअत का कुछ पता ही नहीं मैं सोचता हूँ कि दाना ही ऐसा कहते हैं ये सर तो ग़ैर के आगे कभी झुका ही नहीं