मैं तो अपने आप को पहचानना ही चाहता हूँ जानता जो कुछ नहीं वो जानना ही चाहता हूँ सौ फ़रिश्ते ले के मेरे पास आएँ जो सहीफ़ा उस को अपनी छलनियों में चानना ही चाहता हूँ सैकड़ों सूरज खड़े हैं आईना दर-दस्त लेकिन सर पे ज़ुल्मत की रिदा मैं तानना ही चाहता हूँ जो मिरे मौजूद में है और ला-मौजूद में जान सकता ही नहीं और जानना ही चाहता हूँ मैं जो दुश्मन के बुलावे पर निकल आया हूँ 'मिदहत' बर-सर-ए-मैदान में कुछ ठानना ही चाहता हूँ