मैं उस का नाम घुले पानियों पे लिखता क्या वो एक मौज-ए-रवाँ है कहीं पे रुकता क्या तमाम हर्फ़ मिरे लब पे आ के जम से गए न जाने मैं ने कहा क्या और उस ने समझा क्या सभों को अपनी ग़रज़ थी सभों को अपनी बक़ा मिरे लिए मिरे नज़दीक कोई आता क्या उभरता चाँद मिरा हम-सफ़र था दरिया में मैं डूबते हुए सूरज को मुड़ के तकता क्या परिंदे घर की मुंडेरों पे आ के बैठ गए मैं अजनबी था इशारा कोई समझता क्या फ़िराक़ ओ वस्ल तो तस्वीरें उन के नाम की हैं मैं इन में रंग किसी के लहू से भरता क्या मैं अपने घर में नहीं था मगर कहीं भी न था उधर से मुझ को गुज़रते किसी ने देखा क्या तमाम शहर रवाँ है मिरे तआक़ुब में मैं आप क्या मिरे घर की तरफ़ को रस्ता क्या ये रौशनी कभी पहले न थी यहाँ 'अख़्तर' सितारा रात की पलकों पे कोई चमका क्या