मैं उस से दूर रहा उस की दस्तरस में रहा वो एक शोले की सूरत मिरे नफ़स में रहा नज़र असीर इसी चश्म-ए-मय-फ़शाँ की रही मिरा बदन भी मिरी रूह के क़फ़स में रहा चमन से टूट गया बर्ग-ए-ज़र्द का रिश्ता न आब ओ गिल में समाया न ख़ार-ओ-ख़स में रहा तमाम उम्र की बे-ताबियों का हासिल था वो एक लम्हा जो सदियों के पेश-ओ-पस में रहा वो एक शाएर-ए-आशुफ़्ता-सर कि मुझ में था हवा का साथ न दे कर हवा के बस में रहा किसी ख़याल के नश्शे में दिन गुज़रते रहे मैं अपनी उम्र के उन्नीसवें बरस में रहा