मैं उसे अपने मुक़ाबिल देख कर घबरा गया इक सरापा मुझ को ज़ंजीरें नई पहना गया मैं तो जल कर बुझ चुका था इक खंडर की गोद में वो न जाने क्यूँ मुझे हँसता हुआ याद आ गया मैं ज़मीं की वुसअतों में सर से पा तक ग़र्क़ था वो नज़र के सामने इक आसमाँ फैला गया सोच के धागों में लिपटा मेरा अपना जिस्म था एक लम्हा मुझ को अपनी ज़ात में उलझा गया मैं तो शायद वक़्त के साँचे में ढल जाता 'निसार' कोई मुझ को मावरा की दास्ताँ समझा गया