मैं वो इक जिंस-ए-गिराँ हूँ सर-ए-बाज़ार कि बस हाथ यूँ मिलते हैं हसरत से ख़रीदार कि बस आज तक अहल-ए-वफ़ा से न किसी ने पूछा और जारी रहे शुग़्ल-ए-रसन-ओ-दार कि बस चिलचिलाती हुई ये धूप ये तपते मैदाँ और इधर हौसला-ए-दिल का वो इसरार कि बस आ गया यज़्दाँ को तरस आख़िर कार इतना शर्मिंदा-ओ-नादिम था गुनहगार कि बस शिद्दत-ए-शौक़ में हद से न गुज़र जाए कहीं कोई कर दे दिल-ए-नादाँ को ख़बर-दार कि बस जी यही कहता है अब चल के वहीं जा ठहरो हम ने वीरानों में देखे हैं वो आसार कि बस दौलत-ए-ऐश मिला करती है नादानों को अहल-ए-इदराक जिया करते हैं यूँ ख़्वार कि बस चुप ही इस दौर में रहिए तो मुनासिब है 'शमीम' कान यूँ रखते हैं वर्ना दर-ओ-दीवार कि बस