मैं वो मजनूँ हूँ कि आबाद न उजड़ा समझूँ मुश्त-ए-ख़ाक अपनी उड़ा कर उसे सहरा समझूँ इस क़दर महव हूँ इन शोला-रुख़ों का जूँ शम्अ कि न जलने को पहचानूँ न तमाशा समझूँ चश्मक-ए-यार हैं मुझ शम्अ के हक़ में गुल-गीर दम ये क़ैंची के मैं अन्फ़ास-ए-मसीहा समझूँ गर्दिश-ए-चश्म-ए-सजन ले गया ख़ातिर से ग़ुबार उस को दश्त-ए-दिल-ए-'उज़लत' का बगूला समझूँ