शोरिश से चश्म-ए-तर की ज़ि-बस ग़र्क़-ए-आब हूँ दिन रात बहर-ए-ग़म में ब-रंग-ए-हुबाब हूँ ये दौर अब तो है कि रक़ीबों की बज़्म में तू मस्त हो शराब से और मैं कबाब हूँ मुझ ख़ूँ-गिरफ़्ता पर मिरे क़ातिल कमर न बाँध में आप अपने क़त्ल का ख़्वाहाँ शिताब हूँ हर सुब्ह-ओ-शाम बाग़ में सहरा में जूँ नसीम उस गुल की जुस्तुजू की हवस पर ख़राब हूँ हैरत से उस को देखते हैं मिस्ल-ए-आइना इफ़शा-ए-दर्द-ए-दिल से खड़ा बे-जवाब हूँ आगाह है ख़ुदा ही 'मुहिब' रोज़ किस लिए नज़रों में उन बुताँ की महल्ल-ए-इ'ताब हूँ