मैं यूँ हयात की वादी-ए-पुर-ख़तर में रहा चराग़ जैसे कोई आंधियों के घर में रहा तमाम ख़ौफ़-ओ-तहय्युर के बाम-ओ-दर में रहा मैं अजनबी की तरह ख़ुद ही अपने घर में रहा न कुछ दवा में न कुछ दस्त-ए-चारा-गर में रहा नज़र के ज़ख़्म का मरहम इसी नज़र में रहा हिसार-ए-ज़ात से बाहर कभी निकल न सका मिसाल-ए-आब-ए-गुहर मैं सदा गुहर में रहा पसंद आया न दामान-ए-रेग-ज़ार-ए-करम मैं अश्क बन के भी अपनी ही चश्म-ए-तर में रहा मैं उस की दोस्त-नवाज़ी से ख़ूब वाक़िफ़ हूँ अज़ल से वक़्त के हमराह मैं सफ़र में रहा न दुश्मनी न अदावत न दोस्ती न ख़ुलूस सिवाए सूद-ओ-ज़ियाँ क्या है अब बशर में रहा न जाने कौन सी मंज़िल की जुस्तुजू है मुझे हमेशा पा-ए-तलब मेरा रहगुज़र में रहा उसी से गुलशन-ए-हस्ती महक उठा है 'शफ़ीक़' जो ख़ार मर्ग-ए-अज़ल से दिल-ए-बशर में रहा