अफ़्साना-ए-दिल क्या तुम से कहें कुछ शाद भी कुछ नाशाद भी है ये फ़िक्र-ओ-नज़र का क़ैदी है इस क़ैद में ये आज़ाद भी है इस निस्बत-ए-आम की दुनिया में अब किस की शिकायत किस से करें कुछ हम भी हैं बर्बाद-ए-जहाँ कुछ हम से जहाँ बर्बाद भी है अफ़सोस तसलसुल-ए-ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ इस शाम-ओ-सहर ने तोड़ दिया बे-रब्त सा है अब क़िस्सा-ए-दिल कुछ भूल गए कुछ याद भी है ऐ काश निगाह-ए-शौक़ तुझे कुछ और सलीक़ा मिल जाता कुछ ज़ीनत-ए-हुस्न तो होती है कुछ सई-ए-नज़र बर्बाद भी है इस दिल की तबाही में शामिल कुछ उन की निगाह-ए-लुत्फ़ भी है कुछ अपने मिज़ाज-ओ-तबीअ'त की मायूसी-ओ-ग़म उफ़्ताद भी है बे-शुबह 'शफ़ीक़' ये तेरी ग़ज़ल इस महव-ए-तरब तक पहुँचेगी ये सोज़ में डूबा साज़-ए-हसीं इक नग़्मा भी है फ़रियाद भी है