मैं ने लिखी लहू से तो तहरीर बोल उठी हर क़त्ल-ए-बे-क़ुसूर की तफ़्सीर बोल उठी ज़िंदाँ में तो मैं मोहर-ब-लब ही रहा मगर झंकार बन के पाँव की ज़ंजीर बोल उठी पूछा कि क़त्ल-ओ-ख़ून ये है किस नज़र का शौक़ तन कर निगाह-ए-वक़्त की शमशीर बोल उठी बे-कार है तलब जो ख़ुलूस-ए-तलब न हो उट्ठे दुआ को हाथ तो तासीर बोल उठी आईना देखते हुए जब भी ख़याल में मैं चुप रहा तो आप की तस्वीर बोल उठी जागे शुऊर-ओ-फ़िक्र तो वीरान ज़ीस्त में तदबीर-ए-कामयाब की तक़दीर बोल उठी अक्सर यही हुआ है कि जब अर्ज़-ए-शौक़ में उजलत न हो सकी है तो ताख़ीर बोल उठी वो राज़ जिस को कह न सकी शर्म से ज़बान उन के हिनाई हाथ की तहरीर बोल उठी थी सुब्ह-ए-नौ उस आग पे गुम-सुम मगर 'कलीम' हर एक जलते ख़्वाब की ता'बीर बोल उठी