मज़ा शबाब का जब है कि बा-ख़ुदा भी रहे बुतों के साथ रहे और पारसा भी रहे मज़ाक़-ए-हुस्न-परस्ती क़ुबूल है मुझ को अगर निगाह हक़ीक़त से आश्ना भी रहे निज़ाम-ए-दहर जुदा कर रहा है दोनों को मैं चाहता हूँ कली भी रहे सबा भी रहे कहाँ से जान बचे जब वो शोख़-ए-सेहर-निगाह जफ़ा-शिआ'र भी हो माइल-ए-वफ़ा भी रहे मुझे मिला है वो रंगीन-अदा मुक़द्दर से जो दिल में जल्वा-नुमा भी रहे छुपा भी रहे चमन-परस्त वही है जिस का ज़ौक़-ए-सलीम गुलों के साए में काँटों से खेलता भी रहे वो रिंद-ए-पाक-तबीअ'त है आप का 'शाइर' शराब भी न पिए और झूमता भी रहे