मज़हब की मेरे यार अगर जुस्तुजू करें मरते हुए मिरा न सू-ए-क़िबला रू करें था मैं शराब-दोस्त बहुत, मेरी ख़ाक के कासे बनाने चाहिएँ कुछ, कुछ सुबू करें मज़कूर मेरे गिर्ये का हो जिस जगह वहाँ अहल-ए-नमाज़ जा-ए-तयम्मुम वज़ू करें बाँग-ए-ज़बीह हो न कभी आशना-ए-गोश क्यूँ-कर तिरे शहीद फ़ुग़ाँ बे-गुलू करें गर तू सुने तो सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ के असीर शरह-ए-नियाज़-मंदी-ए-दिल मू-ब-मू करें उस के दहान-ए-तंग में जा-ए-सुख़न नहीं हम गुफ़्तुगू करें भी तो क्या गुफ़्तुगू करें तालिब हैं दिल से हुस्न-ए-मोहब्बत-फ़ज़ा के हम इस से ज़ियादा और तुझे ख़ूब-रू करें ज़िंदाँ में उस के हैं तो कई बे-गुनह असीर ग़ालिब कि रोज़-ए-ईद इन्हें सुर्ख़-रू करें दावे में तेरे इश्क़ के सादिक़ न हो सके शर्मिंदगी से क्यूँकि न हम सर-फ़रू करें चर्ख़-ए-हज़ार-रख़्ना का पैवंद क्यूँकि हो ये शाल वो नहीं है कि जिस को रफ़ू करें खुलवा दो उन की फ़स्द कि दीवाने हैं वो शख़्स जो फ़स्ल-ए-गुल में मेरा गरेबाँ रफ़ू करें ये चाहिए है हम को कि हम सब से मिल चलें ऐ 'मुसहफ़ी' किसी को न अपना अदू करें