का'बे में जाँ-ब-लब थे हम दूरी-ए-बुताँ से आए हैं फिर के यारो अब के ख़ुदा के हाँ से तस्वीर के से ताइर ख़ामोश रहते हैं हम जी कुछ उचट गया है अब नाला ओ फ़ुग़ाँ से जब कौंदती है बिजली तब जानिब-ए-गुलिस्ताँ रखती है छेड़ मेरे ख़ाशाक-ए-आशियाँ से क्या ख़ूबी उस के मुँह की ऐ ग़ुंचा नक़्ल करिए तू तो न बोल ज़ालिम बू आती है वहाँ से आँखों ही में रहे हो दिल से नहीं गए हो हैरान हूँ ये शोख़ी आई तुम्हें कहाँ से सब्ज़ान-ए-बाग़ सारे देखे हुए हैं अपने दिलचस्प काहे को हैं उस बेवफ़ा जवाँ से की शुस्त-ओ-शोबदन की जिस दिन बहुत सी उन ने धोए थे हाथ मैं ने उस दिन ही अपनी जाँ से ख़ामोशी ही में हम ने देखी है मस्लहत अब हर यक से हाल दिल का मुद्दत कहा ज़बाँ से इतनी भी बद-मिज़ाजी हर लहज़ा 'मीर' तुम को उलझाव है ज़मीं से झगड़ा है आसमाँ से