माज़ी का आज दौर-ए-तरब याद आ गया अपनी तबाहियों का सबब याद आ गया जब जब भी सर उठाने लगा ज़ेहन में गुनाह तब तब ख़ुदा का क़हर-ओ-ग़ज़ब याद आ गया तज़हीक उस ग़रीब की करता भी कैसे मैं मुझ को भी मेरा दस्त-ए-तलब याद आ गया हैरत है दुश्मनों को मिरे हाल पर अगर अपनों का वो करम है कि रब याद आ गया अब तो अदब बराए-अदब भी अदब नहीं अस्लाफ़ का वो दौर-ए-अदब याद आ गया