मैं न तरसूँगा कभी साक़ी जो तरसाने लगे हाथ के छाले भी मुझ को अब तो पैमाने लगे तर्क पीना मय किया औरों के ग़म खाने लगे कैफ़-बख़्श अब हाथ के छाले के पैमाने लगे कल तर-ओ-ताज़ा थे गुलशन में जो चेहरों के गुलाब धूप में फ़िक्रों की आज आए तो मुरझाने लगे दिल का छाला ज़ख़्म की सूरत न कर ले इख़्तियार हाल पर अब मेरे अपने रहम फ़रमाने लगे कल का सूरज अम्न का पैग़ाम लाए या ख़ुदा शाम आई फिर घरों में लोग घबराने लगे आज ये महफ़िल में किस ने दी उलट रुख़ से नक़ाब रौशनी बढ़ने लगी और दीप शरमाने लगे क़ौम फिर पाएगी 'शादाँ' ख़्वाब-ए-ग़फ़लत से नजात रफ़्ता रफ़्ता होश में दीवाने अब आने लगे