मज़लूम किसी दस्त-ए-हिनाई के निकलते जो लोग इरादे से गदाई के निकलते ग़ज़लें मिरी उन पर न गिराँ इतनी गुज़रतीं पहलू जो कहीं मदह-सराई के निकलते सय्याद को क्या जानिए क्या वहम गुज़रता अहकाम अगर मेरी रिहाई के निकलते बर्बादी-ए-दिल का जो मिरी छिड़ता फ़साना अफ़्साने तिरे दस्त-ए-हिनाई के निकलते महरूमी-ए-तक़दीर का एहसास न होता मौक़े जो किसी दर पे रसाई के निकलते मैं मोहर-ब-लब था यही अच्छा हुआ वर्ना इल्ज़ाम मिरे सर ही बुराई के निकलते ऐ 'शौक़' मिरा रंग-ए-ग़ज़ल और ही होता सदमे जो मिरे दिल से जुदाई के निकलते