मज़मून-ए-इश्क़ ज़ेहन-ए-सितमगर में आ गया दरिया सिमट के हल्क़ा-ए-साग़र में आ गया हंगाम-ए-ज़ब्ह जिस्म ने गुस्ताख़ियाँ जो कीं धब्बा लहू का दामन-ए-ख़ंजर में आ गया आ निकले तेरे सामने क्या पूछता है यार कुछ उस घड़ी यही दिल-ए-मुज़्तर में आ गया उस सर्व-क़द के क़ामत-ए-मौज़ूँ को देख कर ख़ुम ऐ 'शगुफ़्ता' नख़्ल-ए-सनोबर में आ गया