मज़ीद इक बार पर बार-ए-गिराँ रक्खा गया है ज़मीं जो तेरे उपर आसमाँ रक्खा गया है कभी तू चीख़ कर आवाज़ दे तो जान जाऊँ मिरे ज़िंदान में तुझ को कहाँ रक्खा गया है मिरी नींदों में रहती है सदा तिश्ना-दहानी मिरे ख़्वाबों में इक दरिया रवाँ रक्खा गया है हवा के साथ फूलों से निकलने की सज़ा में भटकती ख़ुशबुओं को बे-अमाँ रक्खा गया है मगर ये दिल बहलता ही नहीं गो इस के आगे तुम्हारे ब'अद ये सारा जहाँ रक्खा गया है