ख़िरामाँ शाहिद-ए-सीमीं बदन है क़यामत आसमानी पैरहन है तबस्सुम है कि मौज-ए-नूर-ओ-निकहत नज़र है या मोहब्बत की किरन है मिरी मस्ती का अंदाज़ा है किस को निगाह-ए-नाज़ मेरी हम-सुख़न है वो मेरी ज़िंदगी पर हुक्मराँ हैं मिरे बस में न ये तन है न मन है हज़ारों रंग हैं मेरी नज़र में तसव्वुर में किसी की अंजुमन है ख़यालों में मिरे लहरा रही हैं वो ज़ुल्फ़ें जिन में बू-ए-यासमन है अभी इस में ख़िज़ाँ आने न पाए ये नौ-रस आरज़ूओं का चमन है कहाँ अब वो मज़ाक़-ए-सरफ़रोशी ज़बाँ पर क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन है नहीं बदले तिरे 'मुज़्तर' के अंदाज़ वही मस्ती वही दीवाना-पन है